रचनाकार - श्री विद्यापति
जगत विदित बैद्यनाथ, सकल गुण आगर हे
तोहें प्रभु त्रिभुवन नाथ, दया कर सागर हे
अंग भसम शिर गंग, गले बिच विषधर हे
लोचन लाल विशाल, भाल बिच शशिधर हे
जानि शरण दीनबन्धु, शरण धय रहलहूँ हे
दया करू मम प्रतिपाल, अगम जल पड़लहूँ हे
सुनाँ सदा शिव गोचर, मम एहि अवसर हे
कौन सुनत दुःख मोर, छोड़ी तोहि दोसर हे
कार नाट निज दोष, कतेक हम भोखव हे
तोहें प्रभु त्रिभुवन नाथ, अपने कय राखब हे
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