जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे, आगरि सुबुधि सेगानि।
कनकलता सनि सुनदरि सजनि में, विहि निरमाओलि आनि।।
हस्ति-गमन जकां चलइत सजनिगे, देखइत राजकुमारि।
जनिकर एहनि सोहागिनि सजनि में, पाओल पदरथ वारि।।
नील वसन तन घरेल सजनिगे, सिरलेल चिकुर सम्हारि।
तापर भमरा पिबय रस सजनिगे, बइसल आंखि पसारि।।
केहरि सम कटि गुन अछि सजनि में, लोचन अम्बुज धारि।।
विद्यापति कवि गाओलसजनि में, गुन पाओल अवधारि।।
रचनाकार - विद्यापति
अर्थ : आइ सुन्दरि के राह चलैत देखलहुँ। ओ बुद्धिमान, चतुर, आ संगहि कलकलता जकाँ सुन्दरो छलीह। विधाता बहुत विचार केलाक बाद एकर रचना (सृजन) केने छथि। हथिली के चाल चलैत अछि कुनो वैभवपूर्ण राजकुमारी जकाँ लगैत छथि। जेकरा अहितरहक सुहागिन (पत्नी) भेटत ओकरा तऽ मानु चारु पदार्थ भेट जायत। ओ अपन देह के नील रंगक परिधान सं झाँपि रखने छलीह। माथक केस के भव्य आ कलात्मक विन्यास बनने छली। मुदा ओहि पर सेहो भँवर निश्चिन्त भऽ के अपन पंख पसाईर बैस कऽ ओकर रसपान कऽ रहल छल।सिंहनी जकाँ सुडौल कमर, कमल जकाँ आँखि, आह! महाकवि विद्यापति ओहि सुन्दरी केँ गुणक सागर बुझैत छलाह, ताहि लेल ओ एहि गीतक रचना केलनि ।
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