सोमवार, 11 मई 2020

महुअक : प्रेमकथा, खिस्सा-पिहानी

            विवाहक दोसर सांझ । महुअक भऽ गेल रहै । करीब दर्जन भरि सारि-सरहोजि रंग-रंगक ठट्ठा कऽ कऽ गुदगुदा गेल रहथि । हम कनडेरिये श्यामा दिस तकलौं । ओ हमर पएर लग कोन मे पल खसौने दुबकल छली । हमर और औंठाक बदमासी पर कखनो काल पल उठा बिहुंसि देल करथि ।
            हुनका निहारैत हमर नजरि भीत पर लिखल कोबर पर चल गेल । हम अपना हिसाबे ओकरा बुझबाक कोशिश करऽ लगलौं । किछु भंग पर नै चढि रहल छल ।
            तखने भिडकाओल केबाडक बाहर सं खखसैत बिधकरी पहुंचली । हम सम्हरैत कहलियनि-'अबियौ भाभी जी, सब ठीक छै !'
            -'से हमरा बिना परमीशन के संभवो नै अछि ! कम-सं-कम दू दिन आर काबू राखू ! चतुर्थीक राति फ्री कऽ देब !' आ ठिठिआइत हमरा आ श्यामाक बीच 'हाइफन' बनि बैसि रहली ।

इहो पढ़ब:-
● महुअक काल के गीत - मैथिली लोकगीत

            हम पुछलियनि-'अंय ये भाभी जी, ई देबाल पर अर-दर कथीक चित्र सब लिखल छै ?'
            बिधकरी इत्मीनान सं कहलनि-'ओऽऽ ! तऽ आउ बुझबै छी !' आ चोट्टे उठि कऽ ठाढ भऽ गेली-'ई पुरइन आ कमल छै, नारी-पुरुषक प्रतीक ! सूर्य आ चन्द्रमा ओकरा मे शक्ति देनिहार । काछु छै प्रेम-मिलनक प्रतीक । सूगा दूनूक माध्यम । आ ई छै नचैत मयूर, माने आमोद-प्रमोद ! आ ई देखियौ, माछ ! परस्पर आकर्षणक प्रतीक !...'
           -'आ ई बांस ?' हम ओहिना रुचि देखबैत पूछि देलियनि ।
           -'लबडा !' बिधकरी जेना लजाइत बजली ।
           -'मतलब ?'
           -'मतलब, ई छिऐ वंशवृद्धिक प्रतीक ! की ये श्यामादाइ, अहां तऽ ई सब जनै छिऐ ने ?'
           ओ एहि प्रश्न पर जेना आर कठुआ गेली ! आ तखने हमरा ई दू दिन पहाड बुझाय लागल !
           ...से अपन अतीत मे बौआइत हम दुनू प्राणी भभाकऽ हंसि पडलौं-'आब तऽ ई सब खिस्सा-पिहानी भऽ गेलै !'


साभार : बिभूति आनन्द

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