ससन-परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह।
नव जलधर-तर चमकए रे जनि विजुरी-देह॥
आज देखलि धनि जाइते रे मोहि उपजल रंग।
कनक-लता जनि संचर रे महि निर अवलंब॥
ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरबिंद।
बिगसित निह किछु करन रे सोझाँ मुख-चंद॥
विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमंत।
देवसिंह नृप नागर रे हासिनि देइ कंत॥
रचनाकार - विद्यापति
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