लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे,
सिव-सिव जिव नहिं जाय आस अरुझायल रे।
मन कर तहाँ उडि जाइ जहाँ हरि पाइअ रे,
पेम-परसमनि-पानि आनि उर लाइअ रे।
सपनहु संगम पाओल रंग बढाओलरे,
से मोर बिहि विघटाओल निन्दओ हेराओल रे।
सुकवि विद्यापति गओल धनि धइरज धरु रे,
अचिरे मिलत तोर बालमु पुरत मनोरथ रे।
रचनाकार : विद्यापति
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