कि आरे, नव यौवन अभिरामा,
जत दखल तत कहहि न पारिअ छलो,
अनुपम एक ठामा।
हरिन इन्दु अरविन्द करनी हेम पिक बुझल अनुमानी,
नयन बयन परिमल गति तनुरुची ओ गति सुललित बानी।
कुचजुग उपर चिकुर फूजी पसरल ना अरुझाएल हारा,
जनि रे सुमेरु ऊपर मिली उगल चाँद विहीन सबे तारा।
लोल कपोल लुलित मणि - मुंडल अधर बिम्ब अध् जाई,
भजहु भमर नासापुट सुन्दर से देखि कीर लजाई।
भनहिं विद्यापति से वर नागर आन न पाबए कोई,
कंस दलन नारायण सुन्दर तसु रंगीनि पए होई।
रचनाकार : विद्यापति
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