तातल सैकत वारि विन्दु सम सुत मित रमणि समाजे,
तोहे बिसरि मन तोहे समर्पल अब मझु हब कोन काजे।
माधव हम परिणाम निराशा,
तुहुँ जगतारण दीन दयामय अतए तोहर विसबासा।
आध जनम हम नीन्द गमाओल जरा शिशु कतदिन गेला,
निधुबन रमणी रसरंग मातल तोहे भजब कोन बेला।
कत चतुरानन मरि मरि जाओत न तुअ आदि अवसाना,
तोहे जनमि पुनि तोहे समाओत सागर लहरि समाना।
भनइ विद्यापति शेष शमन भय तुअ विनु गति नहि आरा,
आदि अनादिक नाथ कहाओसि अब तारण भार तोहारा।
रचनाकार : विद्यापति
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