नाथ हो कोटिन दोष हमारो।
कहाँ छिपाऊँ, छिपत ना तुमसे, रवि ससि नैन तिहारौ।।
जल, थल, अनल, अकास, पवन मिलि, पाँचो है रखवारो।
पल-पल होरि रहत निसी बासर तिहुँ पुर साँझ सकारो।।
जागत, सोवत, उठत, बैठत करत फिरत व्यवहारो।
रहत सदा संग, साथ न छोड़त, काल पुरुष बरियारो।।
बाहर भीतर बैठि रह्यो है, घट-घट बोलनि हारो।
दुख-सुख पाप-पुन्य के मालिक, निज जन जानि उबारो।।
कहाँ लाज करि नारि नाह सों जो देखत तन सारो।
'लक्ष्मीपति' के स्वामी केशव भव-नद पार उतारो।।
रचनाकार: लक्ष्मीनाथ परमहंस गोसाई
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