मिथिला धरोहर, लधु कथा : मिथिला नगरी के एकटा मेहतर अयोध्या मे आबि के रहय लगला। ओ सीता-राम केर परम भक्त और सेवा भावी छलथि। ओ श्रीराम जी केर मंदिर मे आबय वला तीर्थयात्रि के लेल रस्ता साफ करय छलैथ और हर क्षण प्रभु केर जाप करैत छलैथ।
एक दिन हुनका पता चललैन जे सीता जी केर एकटा परम भक्त साधु सीतासरन जी अवध मे रही के भक्ति और उपासना मे लीन रहैत छथि।ओ ओतय हुनकर कुटिया मे जा पहुंचला। सीतासरन जी सरयू नदी मे स्नान करवाक लेल कुटिया सँ बाहर निकल'लथि, तऽ हुनका ओ बाहर ठाड़ देखलनि। ओ पूछलैथ, अहाँ के छी ?
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ओ उत्तर देलथि, महाराज, हम मिथिलाक रहय वला छीं। जनक जी केर परिवारक मेहतर छिं। इ सुनितेह संत सीतासरन जी हुनका साष्टांग प्रणाम केलनि और कहलथि हमर भाग्य जागी गेल जे महारानी सीता जी केर पीहरक सेवक के दर्शनक सौभाग्य भेटल।
ओ व्यक्ति संकोच सँ बजला, बाबा, अहाँ साधु छी, हमरा अधम के प्रणाम क अहाँ नीक नय केलहु। हमरा पापक भागी बना देलहु। संत जी बजला, अधम जाति सँ नय, दुष्कर्म सँ बनैत अछि। अहाँ निश्छल हृदय भक्त छी। अपनाके अधम मानी क संशय नय पोसब। अधम तऽ ओ अछि, जे दोसरके नीच मानैत अछि।
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एक दिन सीता रानी सीतासरन सँ सपना मे कहलनि, हम तोरा विनम्रता सँ प्रसन्न छी। जेखन तू हमरा सेवक के साष्टांग प्रणाम केलय, तऽ बुझ जे हमरे नमन केलय।
इ सुनि संत सीतासरन जी गद्गद भऽ उठलाह।
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