बारहो कलासँ उगिलि उगिलि भीषण ज्वाला
आकाश चढ़ल दिनकर त्रिभुवन डाहथि जरि जरि
पछबा प्रचण्ड
बिरड़ो उदण्ड
सन सन सन सन
छन छन छन छन
आगिक कण सन
सन्तप्त धूलि अछि उड़ा रहल।
खोंतामे पक्षी संच मंच
हिलबए न पाँखि
खोलए न आँखि
तरुतर पशु हाँफै सजल नयन
चरबाह भागि घर गेल विमन
इनहोर बनल पोखरीक पानि
जलचर-थलचर काँपए थर थर
टाटी, फड़की, खिड़की, केवाड़ लागल घर-घर
ई अग्निवृष्टि!
नहि कतउ बाटमे बटोहीक हो एखन दृष्टि
संहार करत की प्रकृति सृष्टि-
ई अग्निवृष्टि!
श्री मान लोकनि
जे तुन्दिल बनि
मसलंगमे ओंगठल
शरबत छनि-मिसरी बदाम बरफें घोरल
नर्तित बिजुली पंखा तर छथि
सेहो अशान्त बाजथि हरि! हरि!!
की कथा सजीवक
छाहरियो अभिलाष करए भेटए छाहरि
जेठक दुपहरि!
ई समय यदपि
बुचनी घर आँगन छोड़ि तदपि
गिरहस्थक कोड़ए खेत एखन
की करति बेचारी!
आठ पहर दुर्दैवक डाँगें अछि पीटलि
विधवा परिवारहीन बिलटलि
छौ मासक एके टा बच्चा
भाविक सम्बल
जे कानि रहल छै धूर उपर
परिबोध कोना क’ करति तकर?
शोणितोक आब नहि छैक शेष
पुनि दूधक हएत कोना सम्भव?
सहि तीनि सांँझ ई आइ आएल
बनि मजदुरनी अठ अन्नी पर
सूर्योदयसँ सूर्यास्त तक्क
करतैक काज
नहि पनिपिआइयो पाबि सकति!
सन्ध्याक समय
संसार अभय
उगि चान सदय
शीतल ज्योत्सनासँ कएल मुदित ब्रह्माण्ड सकल
नेरूक हित दौड़लि हुँकरि गाय
टुन-टुन-टुन-टुन
टन-टन-टन-टन
घण्टीक शब्द
घर-घरसँ बाहर भेल धूम
तैयो भूखलि-प्यासलि बुचनी
आँचल तर झपने पुत्रा अपन
कुट्टी-कुट्टी परिधान मलिन
हड्डी जागल
सौन्दर्य गरीबीसँ दागल
भूखक ज्वालासँ जरक डरें
तारुण्य जकर अबितहिं भागल
पाकल पानहुँसँ बढ़ल-चढ़ल
पीयर ओ दूबर-पातर तन
फाटल ओ फुफड़ी पड़ल ठोर
आमक फाड़ा सन नयन
खाधिमे धएल जकर दुर्दैव चोर
चिन्ता-चुड़ैल केर चढ़ल कोर
झरकाइ रहल छै आंग जकर
प्रतिपल हा! आशा बनि अंगोर
दे कने अन्न-जल प्राण जकर
अछि बाजि रहल छलसँ नोरक,
से बनि कातरि
कहुना क’ डरि
कर जोरि कहल:
ओ घसल अठन्नी चलि न सकल
हम सब दोकानसँ घूमि-फीरि
छी आबि रहलि
करु कृपा अठन्नी द’ दोसर
एसकरुआ हम
भ’ गेल राति
गिरहत, न आब देरी लगाउ
भूखें-प्यासें हम छी मरैत
लेबै बेसाह
कूटब-पीसब
बच्चा भोरेसँ कानि-कानि
छट-पट करैत अछि जान लैत।
ई फेर आएल भुकब’ कपार
कहुँ असल अठन्नी अदलि-बदलि
क’ रहलि चलाकी साफ-साफ
रौ! ठोंठ पकड़ि क’ कर न कात
ई डाइनि अछि
देखही न आँखि
अछि गुड़रि रहलि
अबिताहिं बुधना सन स्वामीकें
चट चिबा गेलि
लक्ष्मीक बेरिमे महाजनी
अछि चुका रहल
क्यो अछि नहि ?
एहन अलच्छीकें क’ देत कात?
मालिक!
हम कर्ज न छी मँगैत
अथवा नहि अएलहुँ भीख हेतु
उपजले बोनि टा देल जाए
हम थिकहुँ अहीं केर प्रजा पूत
कै बेरि एलउँ
टुटि गेल टाँग
अन्नक मारल अछि हमर आँग
जरलहा दैव मरनो न दैछ
की समय भेल
हा! देह तोड़ि क’ कएल काज
सुपथो न बोनि अछि भेटि रहल
तें जगमे ई पड़लै अकाल
उठबितहिं डेग लागए अन्हार
मरि जाएब एतइ
ककरा कहबै?
हित क्यो ने हमर
अनुचितो पैघ जनकें शोभा
भगवान! आह!
गै छौक न डर?
कै खून पचैलनि ई बण्डा
रोइयों न भंग
युग-युग दारोगाजी जीबथु
क’ देबौ खून
गै भाग भाग
बनिहारकें द’ क’ उचित बोनि
कुलमे लगाएब की हमहिं दाग?
ई अपन भभटपन आनक लग
तों देखा
थिकहुँ हम काल नाग
ई ओना जाएत?
यम माथ उपर छै नाचि रहल
रौ, की तकैत छें मूँह हमर
छोटका लोकौक एते ठेसी?
चट-चट-चट-चट
कुलिशहूँसँ कर्कश भीमकाय
मखनाक चाटसँ निस्सहाय
भू-लुण्ठित दुनू माइ-पूत
भ’ गेलि बेहोश
तैयो सरोष
क’ बज्रनाद
भुटकुनबाबू उठलाह गरजि:
मखना! मखना!
केलकौक भगल
ला बेंत हमर
नारिक चरित्रा तों की बुझबें?
जीवने बितौलहुँ ऐ सबमे।
दन-दन-दन-दन
मूचर््िछतो देह पर बेंत वृष्टि
बस एक बेर अस्फुट क्रन्दन
शिशु संगहिं बुचनिक मुक्त सृष्टि!
सविषाद हासमे चन्द्रमाक
ओ घसल अठन्नी बाजि उठल:
हम कत’ जाउ
अवलम्ब पाउ
के शरण?
घसल जनिकर अदृष्टि!
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