आसक लता लगाओल सजनी,
नयनक नीर पटाय।
से फल आब परिनत भेल मजनी,
आँचर तर न समाय।
कांच सांच पहु देखि गेल सजनी,
तसु मन भेल कुह भान।
दिन-दिन फल परिनत भेल सजनी,
अहुनख कर न गेआना।
सबहक पहु परदेस बसु सजनी,
आयल सुमिरि सिनेह।
हमर एहन पति निरदय सजनी,
नहि मन बाढय नहे।
भनइ विद्यापति गाओल सजनी,
उचित आओत गुन साइ।
उठि बधाव करु मन भरि सजनी,
अब आओत घर नाह।
रचनाकार : विद्यापति
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