मधुमय प्रकृतिक स्वर्णिम आंगन, हम साँझक लघु दीप रे,
टेमी बिना सिनेहक जडइछ कोना सुनायब गीत रे।
अछि निस्सीम गगन आगाँ मे
पाछाँ क्षितिजक कोरे,
बीचे बाट बटोही थाकए देखए ओर न छोरे।
तृषित बेकल जल ताकय रहि रहि पाबए भोरक शीत रे।
जीवन गति बढले जाइत अछि,
अनुभव रहल अधूरे।
नित दिन नव नव पथिक अपरिचित,
भेटि रहल समतूरे।
शान्त लखए सब अपने मग मे, हमर होयत के मीत रे।
आगां ज्योति बढल जाइत अछि,
पाछाँ रहय अन्हारे।
टेमी आध, बाट अछि पलगर,
सरिता कथा पहाड़े।
श्रम सुविवेक सुकाज बिना नहि भेटए मोतिम सीप रे।
स्नेह सुधा हम ताकल सदिखन,
किन्तु न पाओल पारे।
जँ-जँ डेग थाह दिस बढइछ,
भेटि रहल मंझधारे।
अम्ब अहाँक अशेष अमिय बल अनुखन बरय "प्रदीप रे"।
रचनाकार: मैथिली पुत्र प्रदीप (प्रभुनारायण झा)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अपन रचनात्मक सुझाव निक या बेजाय जरुर लिखू !