श्री गीताजी ! बनि परम सदन, ई विनय हमर स्वीकार करी।
हमरा सन हीन, अकिंचन केँ मा! अपने अंगीकार करी॥
ने चिन्तन, मनन, भजन किछुओ, ने शब्द ज्ञान भंडार कोनो।
ने विपुल साधना सुदृढ़ सौम्य, ने अगति के प्रतिकार कोनो॥
हम सादर दण्ड-प्रणाम करी, ई सहज स्नेह स्वीकार करी।
श्रीगीताजी! बनि परम सदय, ई विनय हमर स्वीकार करी॥
युग-युग सँ जग में योग बिना, नहीं देखी हम आधार कोनो।
संसार सिन्धु मे भटकि-भटकि, नहि पाबि सकी पतवार कोनो॥
योगेश्वर "कृष्ण" हृदय बासिनि! भवसागर बेड़ा पार करी।
श्री गीताजी! बनि परम सत्य, ई विनय हमर स्वीकार करी॥
चंचल मन ई नहीं थीर रहय, तेहि सँ बनी गेलहुँ अधीर प्रबल।
केहि ठाँ जा आश्रय पाबि सकाब, हे अम्ब! हरत के पीर हमर॥
शब्दक 'प्रदीप' ! सगरो अन्हार! अपने प्रकाश साकार करी।
श्रीगीताजी! बनि परम सदय ई विनय हमर स्वीकार करि॥
गीतकार: मैथिली पुत्र प्रदीप (प्रभुनारायण झा)
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