अस्पृश्य भेलहुँ कै कोन पाप ?
मृत्तिका एक एके कुम्हार,
ओ दण्ड चक्र चीवर सम्हार।
आकार एक क्यों मंगल घट,
गौबरौड़ बनल हम सही ताप।।
जाहि मृगनयनिक कटि माथ उपर,
घुमलहुँ कतेक दिन रसनिर्झर।
से देखि दूर कहि दूर जाथि,
नहि जानि देल के एहन शाप ?
जे कुकुरौं कैं सुतधि पलंग,
पी मद्य विलोचन करथि रंग।
से देखि हमर मुख करथि घृणा;
दुर्भाग्यक पड़ि गेल केहन छाप ?
चढ़ि चाक प्रदक्षिण हरिक कएल,
आवामे तनकें हवन कएल।
फल तकर केहन विपरीत भेल,
झूठे थिक सबटा योग-जाप।।
घट-घटमे वासी ब्रह्म एक,
हो भान अविद्यासँ अनेक।
बुझितहुँ वेदान्ती हमर वारि।
अपवित्र कहथि क’ क’ प्रलाप।।
हो सदिखन संसारक सुधार,
पतितौक बनथि क्यो कर्णधार।
उद्धार सुधारकसँ न हमर,
ई सभ्य समाजक थिक प्रताप।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अपन रचनात्मक सुझाव निक या बेजाय जरुर लिखू !