Prakriti Sundari Poem
धैर्य निधिकेँ, हरिणीकेँ आँखि, कल्पना सहृदय कवि केँ देल
भाव भंगी रमणीकेँ, शान्ति मन्त्र गान्धीजीकेँ दए देल
मातृभूमिक नामेँ मरिजाइ मदनमोहन ओ भगत, गणेश-
लाजपति रौशन रामप्रसाद वीर बटुकेश्वर केँ आदेश
देल अपने जपि क्रान्तित्क मन्त्र, पैरकेँ पटकि करथि भूकम्प
उठा कौखन दारुण तूफान जलधिमे मचा देल हड़कम्प
गरजि कौरखन कए बिजुलिक व्याज मूसलाधार बारि बरिसाय
भसाबथि देशक देश अनन्त सुनाबथि हाय पिता! हा माय!
दृश्य चीनीक गढ़क अछि पस्त, देखावथि जे कयलक जापान
जारशाही अछि मटियामेट करै छल जे मनुष्य बलिदान
दिवाला अवसेनियाँक भेल जकर ठोकै छल बहुतो पीठ
घमण्डे सदिखन-जे छल चूर देखाबाथि, से देखबइ अछि पीठ
कोन गनती ई सब, ब्रह्माण्ड अखण्डक छथि करैत ई नाश
सृजन पालन लय हिनके हाथ, सुरासुर नर हिनके अछि दास
हिनक चरणाम्बुजकेँ हम वन्दि मङइ छी हाथ दुहूकेँ जोड़ि
तते माँ! शक्ति दिअऽ जे पारतन्त्र्य बेड़ीकेँ दी हम तोड़ि
विजय हो क्रान्तिक भारतमाँक, विजय हो साम्यवाद हो घोष
विजय हो उच्च हिमालयगिरिक उग्र हो हिन्द निवासिक रोष
अरब निधिमे बीचीक मृदंग हर्षसँ बाजओ, उठओ तुफान
हिन्द सागरमे खाड़ी बंग सुनाबथु निज कल्लोलक गान
शस्य सम्पन्न हमर हो देश, होइ हम रणदीक्षा निष्णात
देखि मम ज्ञान तथा विज्ञान, विपक्षिक काँपय थरथर गात
विश्व पुनि हिन्दक सुनिकेँ नाम, करए स्वप्नहु मे हाहाकार
आत्मबल देखि अचिन्त्य अनन्त पैरपर नमवय शिर संसार
चरणध्वनिसँ डगमग हो भूमि, त्यागसँ विश्व विपिन छकिजाथु
एक सत्याग्रह देखि अपूर्व मुग्ध भय रिपुओतक झुकिजाथु
करी स्वातन्त्र्यक निशिदिन गान अन्तमे ‘मधुप’ रहल छथि माङि
विजय सूचक भारत केर ध्वजा हिमालय गिरिपर दी हम टाङि।
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