शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

मिथिलाक विवाह चतुर्थी कर्म विधान

मिथिला धरोहर : आसन पर बैस के आचमन आ प्राणायाम कऽ के ‘ॐ अपवित्राः पवित्रो वा.’ मन्त्र सं अपना ऊपर आ पूजन-सामग्री पर जल छिट क हाथ मे अक्षत, पुष्प लऽ के ‘आ नो भद्रा.’ इत्यादि माङ्गलिक मन्त्र के पढ़ि कऽ हाथ मे जल लऽ के ‘देशकालौ सङ्कीत्र्य, गोत्राः शर्मा सपत्नीकोऽहं मम अस्याः भार्यायाः सोम-गन्धर्वा-ऽग्न्युपभुक्तदोष- परिहारद्वारा विवाहाच्चतुथ्र्यामपररात्रो चतुर्थीकर्म करिष्ये।’ संकल्प-वाक्य उच्चारण कऽ जल के भूमि पर छोड़ि दिअ। पुनः हाथ मे जल लऽ के ‘अस्मिन् चतुर्थी कर्मणि पञ्चभूसंस्कार पूर्वकमग्नि स्थापनं करिष्ये’ धरि संकल्प-वाक्य पढ़ि अग्नि स्थापन के संकल्प करु।

अग्नि स्थापन के क्रम अहि प्रकार अछि -
एक हाथ चैकोर वेदी के निर्माण कऽ, ओकरा कुशा सं संमार्जित करु, गोबर मिश्रित जल सं नीप òुवा सं ओहि पर तीन रेखाकार, अनामिका और अंगूठा सं ओहि तीनो रेखा सं किछ माट्टी निकाइल के बाहर फेंक दियौ, पुनः जल छिट कऽ ‘ॐ अग्निदूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ ।।2।। आसादयादिह।।’ अहि मन्त्र सं वेदी पर अग्नि स्थापन करु।

पुनः वर हाथ मे जल एवं वरण-सामग्री लऽ के देशकालौ सवीत्र्य, अस्यां रात्रौ कर्तव्यचतुर्थी होमकर्मणि कृता-ऽकृता-ऽवेक्षणरूप-ब्रह्मकर्मकर्तुम् अमुकगोत्राममुकशर्माणं ब्राह्मणम् एभिः पुष्प-चन्दन-ताम्बूल-वासोभिर्बह्मत्वेन त्वामहं वृणे।’ संकल्प पढ़ी के ब्रह्मा के वरण करु। आ वरण-सामग्री हुनका दऽ दिऔ। ब्रह्मा भी, ‘वृतोऽस्मि’ एना कहि दिअ। पुनः वर ब्रह्मा सं ‘यथाविहितं कर्म कुरु’ एना कहु। ब्रह्मा भी, ‘यथाज्ञानं करवाणि’ अहि प्रकार कहु।

तत्पश्चात् दक्षिण दिस ब्रह्मा के स्थापित करु, ओहिक उत्तर भाग मे जलपूर्ण घट के स्थापित करु। ओहि उपरांत वेदी पर चाउर (चावल) पकाबु, तथा  कुशकण्डिका कऽ ‘ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय न मम। ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम। ॐ सोमाय स्वहा, इदं सोमाय न मम।’ आधार और आज्यभाग संज्ञक अहि देव के घृत सं आहुति करु।

अहिके पश्चात 'ॐ अग्ने प्रायश्चिते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै पतिघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदमग्नये न मम।।1।। उदपात्रो त्यागः। ॐ वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै प्रजाघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं वायवे न मम।।2।। (उदपात्रो त्यागः) ॐ सूर्यप्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै पशुध्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।।3।। (उदपात्रो त्यागः) ॐ चन्द्र प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै गृहघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं चन्द्रमसे न मम।।4।। (उदपात्रो त्यागः)। ॐ गन्धर्व प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै यशोघ्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं गन्धर्वाय न मम।।5।। पांचटा मन्त्र पढ़ी प्रायश्चित्त संज्ञक पांच देव के लेल घी सं हवन कऽ जलपात्रा मे ‘न मम’ कहि òुवा सं बचल घृत के प्रक्षेप करु।

तदनन्तर स्थालीपाक (धृतमिश्रित पाकल चाउर), एकटा कसोर मे कनि निकाइल कऽ ‘ॐ  प्रजापतये स्वाहा’ कहि के स्थालीपाक सं हवन करु ‘इदं प्रजापतये न मम’ कह òुवा सं बचल घृत के प्रोक्षणीपात्रा मे परित्याग कऽ कसोरे मे राखल अवशिष्ट चाउर के ठाड़ भऽके कुश लऽ ब्रह्मा के स्पर्श करैत, ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ पढ़ी अग्नि मे आहुति दऽके ‘इदमग्नये स्विष्टकृते न मम’ कहि òुवा सं बचल घृत के प्रोक्षणीपात्रा मे प्रक्षेप करु।

तत्पश्चात्  तत आज्येन भूरादिनवाहुतीर्दद्यात्। ॐ भूः स्वाहा। इदमग्नये न मम।।1।। ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे न मम।।2।। ॐ  स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।।3।। ॐ  त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो बद्दितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँ सिप्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।।4।। ॐ  स त्वं नो अग्नेवमो भवेातीनेदिष्ठो अस्या उपसो व्युष्टौ। अवयक्ष्व नो वरुण˜ रराणो वीहि मृडीक˜ सुहवो न एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणभ्यां न मम।।5।। ॐ अयाश्चाग्नेस्यनभिशस्ति याश्च सत्यमित्वमया असि अयानो यज्ञं वहास्ययानो धेहि भेषजकृ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।।6।। ॐ ये ते शतं वरुणं ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिन्र्नो अद्य सवितोत विष्णुुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भयः स्वर्केभ्यश्च न मम।।7।। ॐ  उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तावनागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये न मम।।8।। ॐ  प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये न मम।।9।। पर्यन्त बाजी कऽ घृत सं नव आहुति देव और ‘इदं न मम’ कहि  òुवावशिष्ट घृत के प्रोक्षणीपात्रा मे छोइर दियौ। 
पुन ‘प्रोक्षणीपात्रास्थ घृत के अनामिका और अंगुष्ठ सं सूंघि, आचमन कऽ ‘ॐ सुमित्रिया न.’ अहि मन्त्र सं प्रोक्षणीपात्रास्थित कुश सं अपना के मार्जन करैत ओहि कुशा के अग्नि मे छोइर दियौ।

पुनः वर हाथ मे जल लऽके देशकाल के उच्चारण करैत, ‘अस्यां रात्रौ कृतैतच्चतुर्थी होमकर्मणोऽङ्गतया विहितं पूर्णपात्रामिदं प्रजापति दैवतममुकगोत्रायाऽमुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे।’ कहि ब्रह्मा के पूर्णपात्रा प्रदान करु। ब्रह्मा भी, ‘ॐ स्वस्ति’ कहि दियौ। तथा ‘ॐ  दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः।।’ इ मन्त्र पढ़ि ईशान कोण मे प्रणीतापात्रा के उलैट दियौ।

ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता तनूर्जारघ्नी तत एनां करोमि सा जीय्र्यत्वं मया सह।। मंत्रा पढ़कर वधू के मस्तक का सिञ्चन करु।

ॐ प्राणैस्ते प्राणान् सन्दधामि।।1।। ॐ अस्थिभिरस्थीनि सन्दधामि।।2।। ॐ मांसैस्ते मांसानि सन्दधामि।।3।। ॐ  त्वचा ते त्वचं सन्दधामि ।।4।। मंत्र पढ़ि कऽ प्रत्येक मन्त्र के बाद चाइर बेरा वधू के स्थाली पाक के चाउर के बधू जे प्राशन कराउ (खुआबू) अहि प्रकार बधू सेहो बर के अहि चाइर मन्त्र के पढ़ि कऽ चाइर बेरा खुआबैथ। 

ताहिक उपरांत बर वधू के हृदय छू कऽ निम्न मंत्र पढू -
ॐ  यत्ते सुशीम हृदयं दिवि चन्द्रमसि स्थितम्। वेदाहं तन्मां तद्-विदद्यात्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः कृ श्रुणुयाम शरदः शतम्।। तत्पश्चात् देशाचार के अनुसार परस्पर एक दूसरक  कङ्गन देवता के सोझा खोइल के, पुरोहित òुवा सं भस्म लऽके ‘ॐ त्रयायुषं जमदग्नेः’ से ‘यद्देवेषु त्रयायुषम्’ पर्यन्त मन्त्र उच्चारण कऽ बर-वधू के ललाट दक्षिण बाहु मूल एवं ग्रीवा मे लगा दियौ। पुनः बर संकल्प पूर्वक उपस्थित ब्राह्मण के भूयसी दक्षिणा प्रदान कैल जाउ। आ हुनका सं आशीर्वाद लिअ। बाद मे ‘प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्.’ तथा ‘यस्य स्मृत्या च नामोक्तया.’ अहि दुनु श्लोक के पढ़ि कऽ ‘ॐ विष्णवे नमः’ ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे नमः कहि कऽ भगवान् विष्णु के प्रणाम करु।

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