एना महर्षि अहिलेल चाहए छलथि जे दुनू पत्नि मे आपसी विवाद नै होइन आ सदा प्रेम बनल रहैइन जाहिसे हिनका निश्चिंतता पूर्वक सन्यास लेबाक लाभ भेटैइन। मैत्रयी के त सांसारिक वस्तु अर्थात भौतिक सुख के प्रति लेश मात्रो मोह नै छलनी। हुनका आध्यात्मिक ज्ञान के क्षुधा छलनी। ओ अपन पति के आध्यत्मिक ज्ञान के हिस्सा बनए चाहए छलिथि। हुनक सोच छलनी जे साक्षात् सुवर्णमय पृथ्वी प्राप्त भेलो पर अमरत्त्व प्राप्त नै होइत अछि। अतः जाहि संपत्ति सं हमरा अमरता प्राप्त नै होयत, ओ हमरा लेल व्यर्थ अछि, हम की करब? अतः प्रत्यक्ष मे कहलनी - स्वामी अगर अहाँ सम्पूर्ण ऐश्वर्य सं युक्त सम्पूर्ण धरा सेहो द देबय तहनो हम ओहि सं की अमरत्व प्राप्त क सकय छी। महर्षि याग्यवल्क्य अपन बुद्धिमती पत्नी के गप्प सुनी विस्मित आ प्रसन्न होइत कहलैथ - "नै देवी ! इ कदापि संभव नै अछि, व्यर्थ आशा छी." ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी कहलनी - भगवन ! जाहिसँ हमरा अमरत्व प्राप्त नै होयत आ हमरा लेल तृण सदृश अछि. हमर कोन काजक इ भौतिक वस्तु?
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अहाँके एहन वस्तु निश्चित रूप सं ज्ञात अछि जाहिके समक्ष इ धन और ऐश्वर्य तुच्छ अछि। अत: अहाँ एकर मोह नै क के त्याग क के जा रहल अछि। हमहुँ एकरा जानय चाहय छी। 'यदेव भगवन वेद तदेव ब्रूहि' जाहि वस्तु के स्वामी अमरता के साधन मानय अछि। हम जानय छी आत्मा के अध्ययन आ मनन केले सं संसार के प्रत्येक वस्तु के ज्ञान प्राप्त होइत अछि, अतः हमरा एकर ज्ञान प्रदान करु जाहिसे हमर ज्ञान पिपासा तृप्त होयत।
अपन श्रेष्ठ भार्या के विद्वत्तापूर्ण तथा जिज्ञासापूर्ण गप्प सुनी महर्षि प्रसन्न भेलथि, और मैत्रेयी सं कहला- अहाँके दिव्य दृष्टि तथा जिज्ञासा कुनो असाधारण नारी मे टा भ सकए अछि। धन्य छी अहाँ मैत्रेयी ! इ धरा सेही धन्य अछि जे एहन रत्नगर्भा उत्पन्न केलक अछि। महर्षि विभिन्न युक्ति सँ मैत्रेयी के ब्रह्मज्ञान के उपदेश देलथि। मैत्रेयी के आत्मज्ञान के प्यास , अपना आपके जानबाक प्यास, महर्षि सं उपदेशित भ के ओ नारी सं नारायणी के श्रेणी मे आबि गेलीह। महर्षि हुनका उपदेश द के तप करए चली गेलाह।
ओ श्रेष्ठ नारी के रूप मे विख्यात भेली अमरत्व प्राप्त क ब्रह्मवादिनी बनी के अनंत ब्रह्माण्ड मे स्थान प्राप्त क सब नारी के लेल आदर्श बनी गेलीह। मैत्रेयी मैत्रेयी उपनिषद लिखलनि। मैत्रेयी उपनिषद मे लिखए छथि - तपस्या सं मनुष्य अच्छाइ के प्राप्त करए अछि, अच्छाई सं मस्तिष्क पर पकड़ बनए अछि, मस्तिष्क सं स्वयं सं साक्षात्कार अछि, आ स्वयं सं साक्षात्कार मुक्ति अछि। पुनः कहए छथि मस्तिष्के संसार अछि, एकरा शुद्ध करबाक चाहि। मस्तिष्के हमरा भविष्य के मार्गक निर्धारण बताबय अछि और संसार'क सबटा रहस्य के खोइल दैइत अछि। भगवान के नै कुनो प्रारम्भ छैन, नै अन्त इ शुद्ध ज्योति अछि, नै एकरा पकड़ल जा सकैत अछि नै छोड़ल जा सकैत अछि, नै कुनो चिन्ह होइत अछि नै कुनो पहचान , इ शांत और सुदृढ़ होइत अछि। अतः यैह मुक्ति अछि आ मोक्ष अछि। एहन ब्रह्मवादिनी विदुषी, ज्ञान पिपासु, परार्थ जीवनधारिणी पतिपरायण, त्यागमयी आदर्श गृहणी के करबद्ध नमन।
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