शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

Baidyanath Mishra Maithili Poem, Baba Nagarjun Kavita | वैद्यनाथ मिश्र यात्री जी के मैथिली कविता

Nagarjun Poems in Maithili, नागार्जुन की कविताएँ

1. मिथिले -
 वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

मुनिक शान्तिमय-पर्ण कुटीमे

तापसीक अचपल भृकुटीमे

साम श्रवणरत श्रुतिक पुटीमे

छन अहाँक आवास।

बिसरि गेल छी से हम

किन्तु न झाँपल अछि इतिहास


यज्ञ धूम संकुचित नयनमे,

कामधेउनु -ख़ुर खनित अयन में

मुनिक कन्याक प्रसून चयन में

चल आहांक आमोद

स्मरणों जाकर करॆए अछि छन भरि,

सभ शोकक अपनोद।


शारदा -यति जयलापमे

विद्यापति -कविता -कलापमे

न्यायदेव नृप-पतिक प्रतापमे

देखिय तोर महत्व

जाहि सं आनो कहेइच जे अछि

मिथिलामे किछु तत्व।


कीर दम्पतिक तत्वादमे

लखिमा कृत कविताक स्वादमे

विजयि उद्यनक जयोन्माद मे

अछि से अद्वूत शक्ति

जहि सं होएछ अधर्मारिकहुकें

तव पद पंकज मे भक्ति


धीर अयाची सागपात मे

पद बद्ध प्रतिभा - प्रभातमे

चल आहाँक उत्कर्ष

ऒखन धरि जे झाप रहल अछि

हमर सभक अपकर्ष।


लक्ष्मीनाथक योगध्यान मे

कवी चंद्रक कविताक गान में

नृप रमशेवर उच्च ज्ञानमे

आभा अमल आहाँक

विद्याबल विभवक गौरवमे

अहँ ची थोर कहांक?



2. प्रेरणा - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

जगमे सभसौं पछुआयल छी, मैथिल गण! आबहु आगु बढू;

निज अवनति-खाधिक बाधक भै मिलि उन्नति-शिखरक उपर चढू।


अछि हाँइ हाँइ कै लागि पड़ल सभ अपना अपना उन्नतिमे,

उत्थानक एहि सुभग क्षणमे घर बैसि अहीं ने बात गढू।


‘राणा प्रताप, शिवराज, तिलक’ हिनका लोकनिक जीवन-कृति सैं,

तजि आलसकेँ प्रिय बन्धु वृन्द! किछु सेवाभावक पाठ पढू।


भाषा, भूषा ओ भेष अपन हो जगजियार झट जगभरिमे,

ई अटल प्रतिज्ञा ऐखन कै पुनि मातृभूमि पर सोन मढू।



3. भारत माता - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

कियै टूटल जननि! धैर्यक सेतु?

कानि रहलहुँ अछि, अरे! की हेतु?


अहा! जागल आइ कटु-स्मृति कोन?

जाहिसँ भै गेल व्याकुल मोन?


विश्वभरिमे विदित नाम अहाँक!

कान्तियो नयनाभिराम अहाँक!

केहन उज्ज्वल मा! अहाँक अतीत

भेलहुँ अछि पुनि कोन भयसँ भीत?


जलधि-वसने! हिम-किरीटिनि देवि!

तव चरण-पंकज युगलकेँ सेवि,

लोक कहबै अछि अरे! तिहुँ लोक!

अहीं केँ चिन्ता, अहीकेँ शोक!!


कहू जननी कियै नोर बहैछ

छाड़ि रहलहुँ अछि कियै निःश्वास?


कोन आकस्मिक विषादक हेतु

भै रहल अछि मूँह एहन उदास?



4. नवतुरिए आबओ आगाँ...- वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

तीव्रगंधी तरल मोवाइल

क्षणस्पंदी जीवन

एक-एक सेकेंड बान्हल !

स्थायी-संचारी उद्दीपन-आलंबन....

सुनियन्त्रित एक-एक भाव !

परकीय-परकीया सोहाइ छइ ककरा नहि

खंड प्रीतिक सोन्हगर उपायन ?


असहृय नहि कुमारी विधवाक सौभाग्य

सहृय नहि गृही चिरकुमारक दागल ब्रह्मचर्य

सरिपहुँ सभ केओ सर्वतंत्र स्वतंत्र

रोक टोक नहिए कथूक ककरो

रखने रहु, बेर पर आओत काज

आमौटक पुरान धड़िका....

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष !


पघिलओ नीक जकाँ सनातन आस्था

पाकओ नीक जकाँ चेतन कुम्हारक नबका बासन

युग-सत्यक आबामे....

जूनि करी परिबाहि बूढ़-बहीर कानक

टटका-मन्त्र थीक,

नवतुरिए आबओ आगाँ !!

वैह करत रूढ़िभंजन, आगू मुहें बढ़त वैह....

हमरा लोकनि दिअइ आशीर्वाद निश्छल मोने;

घिचिअइ टा नहि टांग पाछाँ...

ढेकी नहि कूटी अपनहि अमरत्व टाक...।



5. आन्हर जिनगी - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

आन्हर जिनगी

सेहंताक ठेंगासँ थाहए

बाट घाट, आँतर-पाँतरकें

खुट खुट खुट खुट....


आन्हर जिनगी

चकुआएल अछि

ठाढ़ भेल अछि

युगसन्धिक अइ चउबट्टी लग

सुनय विवेकक कान पाथिकें

अदगोइ-बदगोइ


आन्हर जिनगी

नांगड़ि आशाकेर कान्ह पर हाथ राखि का’

कोम्हर जाए छएँ ?

ओ गबइत छउ बटगवनी,

तों गुम्म किएक छएँ ?

त’हूँ ध’ ले कोनो भनिता !


आन्हर जिनगी

शान्ति सुन्दरी केर नरम आंगुरक स्पर्शसँ

बिहुँसि रहल अछि!

खंड सफलता केर सलच्छा सिहकी

ओकर गत्र-गत्रमे

टटका स्पंदन भरि देलकइए।



6. अंतिम प्रणाम - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

हे मातृभूमि, अंतिम प्रणाम


अहिबातक पातिल फोड़ि-फाड़ि

पहिलुक परिचय सब तोड़ि-ताड़ि

पुरजन-परिजन सब छोड़ि-छाड़ि

हम जाय रहल छी आन ठाम


माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम


दुःखओदधिसँ संतरण हेतु

चिरविस्मृत वस्तुक स्मरण हेतु

सूतल सृष्टिक जागरण हेतु

हम छोड़ि रहल छी अपना गाम


माँ मिथिले ई अंतिम प्रणाम


कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप

हम टा संतति, से हुनक पाप

ई जानि ह्वैन्हि जनु मनस्ताप

अनको बिसरक थिक हमर नाम


माँ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम!



7. कविक स्वप्न - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

जननि हे! सूतल छलहुँ हम रातिमे

नीन छल आयल कतेक प्रयाससँ।

स्वप्न देखल जे अहाँ उतरैत छी,

एकसरि नहुँ-नहुँ विमल आकाशसँ।

फेर देखल-जे कने चिन्तित जकाँ

कविक एहि कुटीरमे बैसलि रही।

वस्त्र छल तीतल, चभच्चामे मने

कमल तोड़ै लै अहाँ पैसलि रही।

श्वेत कमलक हरित कान्ति मृणालसँ

बान्हि देलहुँ हमर दूनू हाथकेँ।

हम संशकित आँखि धरि मुनने छलहुँ,

स्नेहसँ सूँघल अहाँ ता’ माथकेँ।

फेर देखल कोनमे छी ठाढ़ि मा,

किछु कहय ओ किछु सुनय चाहैत छी।

भय रहल अछि एहन कोनो वेदना

जाहिसँ शिरकेँ धुनय चाहैत छी।

बाजि उठलहुँ अहाँ हे कल्याणमयि!

उठह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।

राति-दिन जकरा तकैत रहैत छह

आँखि मुनि, लय कल्पनाक सहायता।

विद्ध क्रौंचक वेदनासँ खिन्न भय

बाल्मीकिक कण्ठसँ फूटलि रही।

आइओ हम पड़लि कमला कातमे

छी उपेक्षित, पूल जनु टूटलि रही।

तोर तन दौड़ैत छहु कोठाक दिस,

पैघ पैघ धनीक दिस, दरबार दिस।

गरीबक दिस ककर जाइत छै नजरि,

के तकै अछि हमर नोरक धार दिस।

कय रहल छह अपन प्रतिभा खर्च तोँ

ताहि व्यक्तिक सुखद स्वागत गानमे।

जकर रैयति ठोहि पाड़ि कनैत छै

घर, आङन, खेत ओ खरिहान मे।

श्वेत कमलक हरित कान्ति मृणालसँ

बान्हि देलियहु तोहर दूनू हाथकेँ।

ओम्हर देखह हथकड़ी सँ बद्ध-कर

देशमाता छथि झुकौने माथकेँ।

हाय! ई राका निशा, तोँ मस्त भय

करइ छह अभिसार नीलाकाशमे।

कल्पनाक बनाय पाँखि उड़ैत छह

मन्द मलयानिलक मृदुच्छवासमे।

तोँ जकर लगबैत छह सदिखन पता,

सुनह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।

जिन्दगी भरि जे अमृत-मन्थन करय,

जिन्दगी भरि जे सुधा संचित करय,

ओ पियासेँ मरि रहल अछि, ओकरे

अमृत पीबासँ जगत वंचित करय,

परम मेधावी कते बालक जतय

मूर्ख रहि, हा! गाय टा चरबैत छथि।

कते वाचस्पति, कते उदयन जतय

हाय! वन-गोइठा बिछैत फिरैत छथि।

तानसेन कतेक रविवर्मा कते,

घास छीलथि वाग्मतीक कछेड़मे।

कालिदास कतेक, विद्यापति कते

छथि हेड़ायल महिसवारक हेँड़मे।

अन न छैं, कैंचा न छैं, कौड़ी न छै’

गरीबक नेना कोना पढ़तैक रे!

उठह कवि! तोँ दहक ललकारा कने,

गिरि-शिखरपर पथिक-दल चढ़तैक रे!

हमर वीणा-ध्वनि कने पहुँचैत जँ

सटल पाँजर बोनिहारक कानमे।

सफल होइत ई हमर स्वर-साधना

चिर-उपेक्षित जनक गौरव-गानमे।

नावपर चढ़ि वाग्मतीक प्रवाहमे

साँझखन झिझरी खेलाइ छलाह तोँ।

वास्तविकता की थिकै’ से बुझितहक

बनल रहितह जँ कनेक मलाह तोँ।

आइ गूड़ा, काल्हि खुद्दी एहिना,

तोहर बहिकिरनी कोना निमहैत छहु?

साँझ दैं छहु हाय! ओ पतलो जरा,

गारि, फज्झति मोन मारि सुनैत छहु।

ओकर नोरक लम्बमान टघारमे

गालपरसँ कवि! हमहु बहि जाइ छी।

कल्पनामय प्रकृति तोहर देखिकेँ,

की करू हम ऐंचि कय रहि जाइ छी।

छह तोरा जकरा सङे एकात्मता,

सुनह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।

 

एहो पढ़ब :-



8. बूढा वर - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

घर रहिन्ह वरक कमला कात

करै छला खेती साँझ-परात

मरि गेलथीन्ह जखन तेसरो बहु

सौख भेलन्हि बिआहक फेर की कहु

देख'मे सुखैल-पखठैल काठ

रुपैया बान्हि बूढ़ ऐला सौराठ

माथ छलन्हि औन्हल छाँछ जकाँ

जीह गाँझक गोलही माछ जकाँ

दाँत ने रहन्हि, निदंत रहथि

बूड़ि रहथि, घोघा बसंत रहथि

खा रहल छला पान तइपर

कन्यागत दई छलथीन्ह जान तइपर

देखिकै बूढ़ वरक चटक-मटक

घुमैत-घुमैत पहुँचला घटक

पान गलोठिकें उठौलन्हि बात

पूछै लगलथीन्ह परिचय पात

हाथमे हुनक नोसिदानी रहन्हि

छाता रहन्हि, टूटल कमानी रहन्हि


उसरगल छलन्हि कि दनही छलन्हि

कुकुरक चिबौल पनही छलन्हि

साठा पाग रहन्हि चूनक छाँछी जकाँ

कनपट्टीक मसुबिर्ध माछी जकाँ

निमूह धनक जड़ि कटैत रहथि

पाँजि पाटिमे चेफड़ी सटैत रहथि

घटक कहलथीन्ह - "हजारेक टका लागत,

विधि-व्यवहार सै सँ ऊपर लागत

बेसी नही, गोड़ पचासेक देब हमरो

विधाताक संग आशीर्वाद लेब हमरो

सै मे एक अछि 'कान्या', भोग होऔ

सोनमे सुगंधिक संयोग होऔ ।"


हम अजग्गि, बाप उताहुल रहथि

व्यौला रहथि, बेचै लै आकुल रहथि

शेष शुद्ध दिन नौ सौ मे पटलन्हि जा क

हमर गर्दनि बाबू कटलन्हि जा क

घटक पँजियाड़ दूनू बजला मिथ्या

सिद्धान्त भेलन्हि तखन उठला विख्या

सड़लि घोड़ीक एकटा एक्का कैलन्हि

सोझै फल्लाँ गामक सड़क धैलन्हि

मुन्हारि साँझकैं पहुँचैत गेला गाम

पकैत रहइ गाछीमे भरखरि आम

पसरल सबतरि बूढ़ बरक बात

आहि रे कनिया, आहि रे अहिबात

ठाढ़ होथि त लागथि धनुष जकाँ

कथी लै बूझि पड़ता मनुष जकाँ

दाढ़ी बनाओल, कपचल मोछ रहन्हि

नाक जेना टिटहिक चोंच रहन्हि

चिक्कन माथ लगन्हि काछुक पीठ जकाँ

बूझि पड़थीन्ह असर्ध जकाँ, ढीठ जकाँ

देखिकेँ माईकें लगलइ केहेन दन


तामसें भ गेलई घोर ओकर मन

नाक पर पसेंना, कपार पर घाम

ठकुआ गेली बेचारी ठामक ठाम

दौड़लि गेलि, बाबू कें लगलि कह'

विषादें नोर भ' क लागलि बह'-

"ई की कैल उठाक ल आनल

कमलक कोढ़ी लै ढेंग कोकनल

बेटिकें बेचलउँ मड़ुआक दोबर

बूढ़ बकलेलसँ भरलऊँ कोबर

जनमितहिँ मारि दितिअई नोन चटा क'

कुहरए न पड़ितै घेंट कटा क' ।"

पीअर झोरी दिस आँगुर उठा क'

बाबू कहलथीन्ह रुपैया देखाक-

"दूर जाउ, शुभक बेर कनै छी की

दिन घुरलई छौंड़ीक, जनई छी की

बनति सै बीघा खेतक मलिकाइनि

हमरा बेटी सन के हएत धनिकाइनि

बहुत भेल, रहए दिअ, जुनि किछु कहू

जाउ, 'अथ-उत मे' पड़लि ने रहू

जाउ, कन्यादानक ओरिऔन करू ग

पड़िछन करू ग, चुमौन करू ग

दुसई लै, लजबंई लै, डरबई लै

बजै अछि लोक तँ की करबई लै ।"

अहुरिया कटलक, मललक हाथ

बाबू आगाँ माई झुकौलक माथ

हुनक अनटोटल बात एक दिस

झरकल सन हमर अहिबात एक दिस

करब की, सब पी गेलऊँ घोंटि क'

चम्पाक कली फेकल गेलऊँ खोंटि क'

बिआह-चतुर्थी सब भलई सम्पन्न

ओ ससुर धन्न ई जमाय धन्न

हम लोहछलि, ओ रहथि आतुर

(खिसियैल बिलाड़ि नोंचे धुरखुर)

कोहबरसँ माइ लग देह नड़ा के'

बूढा नाचै लगला हर्षे

दुरागमन भ' गेलन्हि सोझे वर्षे

मनुष रहिअन्हि अपन, ल' अनलन्हि

ताला-कुंजी सबकथु द' देलन्हि

देखिक' हमरा परभच्छय उठइए

कहिओ जँ नहिराक लोक अबइए

गराँमे पड़ल सोनक सूति

चलै लागल घरमे सब पर जुइत

बूझि पड़ि निचिंत, अछि खगते कथिक

साँई करैत छथि डरै सिक सिक

मुदा हृदय अछि हाहाकार करैत

कोढ़ अछि ध ध ध ध जरैत

छुच्छ कोर, आँखिमे अछि नोर भरल

ने देखल ककरो एहेन कर्म जरल

मनमे उठैत रहइए स्वाइत-

" जो रे राक्षस, जो रे पुरुषक जाति !

तोरे मारलि हम सभ मरि रहलि छी

किकिया रहलि छी, कुहरि रहलि छी

मोल लई छैं हमरा तों टका द' क'

कनबइ छैं बाप भ' क', काका भ' क'

जाइ अछि पानी जकाँ दिन हमर

जीवन भेल केहेन कठिन हमर

ककरा की कहबइ, सुनत के आई

फाट' हे धरती, समा हम जाइ !"



9. वंदना - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

हे तिरहुत, हे मिथिले, ललाम !

मम मातृभूमि, शत-शत प्रणाम !

तृण तरु शोभित धनधान्य भरित

अपरूप छटा, छवि स्निग्ध-हरित

गंगा तरंग चुम्बित चरणा

शिर शोभित हिमगिरि निर्झरणा

गंडकि गाबथि दहिना जहिना

कौसिकि नाचथि वामा तहिना

धेमुड़ा त्रियुगा जीबछ करेह

कमला बागमतिसँ सिक्त देह

अनुपम अद्भुत तव स्वर्णांचल

की की न फुलाए फड़ए प्रतिपल

जय पतिव्रता सीता भगवति

जय कर्मयोगरत जनक नृपति

जय-जय गौतम, जय याज्ञवल्कय

जय-जय वात्स्यायन जय मंडन

जय-जय वाचस्पति जय उदयन

गंगेश पक्षधर सन महान

दार्शनिक छला’, छथि विद्यमान

जगभर विश्रुत अछि ज्ञानदान

जय-जय कविकोकिल विद्यापति

यश जनिक आइधरि सब गाबथि

दशदिश विख्यापित गुणगरिमा

जय-जय भारति जय जय लखिमा

जय-जय-जय हे मिथिला माता

जय लाख-लाख मिथिलाक पुत्र

अपनहि हाथे हम सोझराएब

अपनेक देशक शासनक सूत्र

बाभन छत्री औ’ भुमिहार

कायस्थ सूँड़ि औ’ रोनियार

कोइरी कुर्मी औ’ गोंढि-गोआर

धानुक अमात केओट मलाह

खतबे ततमा पासी चमार

बरही सोनार धोबि कमार

सैअद पठान मोमिन मीयाँ

जोलहा धुनियाँ कुजरा तुरुक

मुसहड़ दुसाध ओ डोम-नट्ट...

भले हो हिन्नू भले मुसलमान

मिथिलाक माटिपर बसनिहार

मिथिलाक अन्नसँ पुष्ट देह

मिथिलाक पानिसँ स्निग्ध कान्ति

सरिपहुँ सभ केओ मैथिले थीक

दुविधा कथीक संशय कथीक ?


ई देश-कोश ई बाध-बोन

ई चास-बास ई माटि पानि

सभटा हमरे लोकनिक थीक

दुविधा कथीक संशय कथीक ?

जय-जय हे मिथिला माता

सोनित बोकरए जँ जुअएल जोंक,

तँ सफल तोहर बर्छीक नोंक !

खएता न अयाची आब साग !

ककरो खसतैक किएक पाग ?

केओ आब कथी लै मूर्ख रहत ?

केओ आब कथी लै कष्ट सहत ?

केओ किअए हएत भूखैं तबाह ?

केओ केअए हएत फिकरें बताह ?

नहि पड़ल रहत, भेटतैक काज !

सभ करत मौज, सभ करत राज !

पढ़ता गुनता करता पास-

जूगल कामति, छीतन खवास

जे काजुल से भरि पेट खएत

ककरो नहि बड़का धोधि हएत

कहबओता अजुका महाराज

केवल कामेश्वरसिंह काल्हि

हमरालोकनि जे खाइत छी

खएताह ओहो से भात-दालि


अछि भेल कतेको युग पछाति

ई महादेश स्वाधीन आइ

दिल्ली पटना ओ दड़िभंगा

फहराइछ सभटा तिनरंगा

दुर्मद मानव म्रियमाण आइ

माटिक कण कण सप्राण आइ

नव तंत्र मंत्र चिंता धारा

नव सूर्य चंद्र नवग्रह तारा

सब कथुक भेल अछि पुनर्जन्म

हे हरित भरित हे ललित भेस

हे छोट छीन सन हमर देश

हे मातृभूमि, शत-शत प्रणाम!!



10. विलाप - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

नान्हिटा छलौँ, दूध पिबैत रही

राजा-रानीक कथा सुनैत रही

घर-आँगनमे ओंघड़ाई छलौँ,

कनिया-पुतरा खेलाइ छलौँ,

मन ने पड़ै अछि, केना रही

लोक कहै अछि, नेना रही

माइक कोरामे दूध पिबैत

बैसलि छलौँ उँघाइत झुकैत

परतारि क' मड़वा पर बहीन ल' गेल

की दन कहाँ दन भेलै, बिआह भ' गेल

पैरमे होमक काठी गड़ल

सीथमे जहिना सिन्नूर पड़ल

वर मुदा अनचिन्हार छला

फूसि न कहब, गोर नार छला

अवस्था रहिन्ह बारहक करीब

पढब गुनब तहूमे बड़ दीब

अंगनहिमे बजलै केदन ई कथा

सुमिरि सुमिरि आई होइये व्यथा

सत्ते कहै छी, हम ने जनलिअइ

हँसलिअइक ने, ने कने कनलिअइ

बाबू जखन मानि लेलथीन

सोझे वर्षे दुरागमनक दिन

सिखौला पर हम कानब सीखल

कपारमे मुदा छल कनबे लीखल

सिन्नूर लहठी छल सोहागक चीन्ह

हम बुझिअइ ने किछु उएह बुझथीन्ह

रहै लगलौं भाइ-बहीन जकाँ

खेलाय लगलौं राति-दिन जकाँ

कोनो वस्तुक नहीं छल बिथूति

कलेसक ने नाम दुखक ने छूति

होम' लागल यौवन उदित

होम' लागल प्रेम अंकुरित

बारहम उतरल, तेरहम चढ़ल

ज्ञान भेल रसक, सिनेह बढ़ल

ओहो भ' गेला बेस समर्थ

बूझै लगला संकेतक अर्थ

सुखक दिन लगिचैल अबैत रहै

मन आशाक मलार गबैत रहै

बन्हैत रही बेस मनोरथक पुल

विधाता बूझि पड़ै छल अनुकूल

दनादन दिन बितैत रहै

अभागलि हैब, से क्यौ ने कहै

एक दिन उठलिन्ह हुनका दर्द

टोल भरिमे भ' गेल आसमर्द

कतै वैद डाकदर बजाओल गेला

तैयो ने हाय ओ नीकें भेला

बहार कै देलकन्हि लोग आबि क'

जान लै लेलकन्हि रोग आबि क'

बैतरणीमे उसरगल गेलन्हि बाछि

उठा क' ल' जाइत गेलथिन्ह गाछी

पोखरिपर लहठी फूटल हमर

सीथसँ सिन्नूर छूटल हमर

ठोहि पाड़िक हकन्न कनैत रही

एना हैत से की जनैत रही

लगै अछि चारू दिस अन्हार जकाँ

ने बुझि पड़ै क्यौ चिन्हार जकाँ

विष सन अवस्था, पहाड़ सन जीवन

संसारमे हमर के अछि अपन ?

कानी तँ चुप कैनिहार क्यौ नहि

रूसी तँ बौंसनिहार क्यौ नहि

हम पड़लि छी टूटल पुल जकाँ

मौलैल, बिनु सूँघल फूल जकाँ

आगि छुबै छी तँ जरैत ने छी

माहुर खाई छी तँ मारैत ने छी

कोढ़ फाटै मुदा ने जाय जान

कोन पाप कैने छलौं हे भगवान

भरल आँगन सुन्न हमरा लेखै

फूजल घर निमुन्न हमरा लेखें

लोक अलच्छि बुझैए, अशुभ बुझैए

अनेक नहि, से अपनो सुझैए

बिनु बजौने कतौ जाइ ने आबी

मुँहमे लगौने रहै छी जाबी

भुस्साक आगि जकाँ नहू नहू

जरै छी मने-मने हमहू

फटै छी कुसियारक पोर जकाँ

चैतक पछवामे ठोर जकाँ

काते रहै छी जनु घैल छुतहड़

आहि रे हम अभागली कत बड़

भिन्सरे उठि प्रात:स्नान क' क'

जप करै छी हुनके ध्यान ध' क'

धर्मसँ जीवन बिताबै चाहै छी

इज्जति आबरू बचाबै चाहै छी

तैओ करै चाहै छथि हमरा नचार

केहेन केहेन ठोप चानन कैनिहार !

ओहनाक सङ्गे जँ हम खाधिमे खसी

ओ नुकैले रहता, हमर हैत हँसी

स्त्रीगणक जाती हम थिकौं अबला

तहू पर विधवा, कहू त भला !


पुरुषक जाती ओकरा के की कहतै

ओकरे समाज ओकरे बात रहतै

उठा लितथि बरु भगवान हमरो

कथी लै भारी लगितिअइ ककरो

मरब तँ कानत क्यौ नहिएँ

रहब तँ क्यौ जानत नहिएँ

इहो जीवन कोनो जीवन थीक

एहिसँ कुकुर-बिलाड़िए नीक

माय-बापक मनोरथक शिकार भ' क'

बेकार भ' क, दबल हाहाकार भ' क'

पँजियाड़ औ' घटकराजक नामपर

व्यवस्था औ' समाजक नामपर

विधवा हमरे सन हजारक हज़ार

बहौने जा रहलि अछि नोरक धार

ओहिमे ई मुलुक डूबि बरु जाय

ओहिमे लोक-वेद भसिया बरु जाय

अगड़ाही लगौ बरु बज्र खसौ

एहेन जाति पर बरु धसना धसौ

भूकम्प हौक बरु फटो धरती

माँ मिथिले रहिये क' की करती  !



11. लखिमा - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

कवि कोकिलक कल-काकलिक रसमञ्जरी

लखिमा, अहाँ छलि हैब अद्भुत सुन्दरी

रुष्ट होइतहुँ रूपसी

कहि दैत कियो यदि अहाँ के विद्यापतिक कवी-प्रेयसी

अहाँ अपने मौन रहितहुँ

कहनिहारक मुदा भ जइतैक सत्यानाश !

मानित'थिन ईह !

सुनित'थिन शिवसिंह त' घिचबा लित'थिन जीह !

दित'थिन भकसी झोँकाय तुरंत

क दित'थिन कविक आवागमन सहसा बंद

अहूँ अन्तःपुरक भीतर

बारिकँ अन्न- पानि

सुभग सुन्दर कविक धारितहुँ ध्यान

बूढि बहिकिरनीक द्वारा

कोनो लाथें

अहाँकें ओ पठबितथि सन्देश -

(सङहि सङ झुल्फीक दुईटा केश !)

विपुल वासन्ती विभवकेर बीच विकसित भेल

कोनो फूलक लेल

लगबथुन ग' क्यौ कतेको नागफेनिक बेढ

मुदा तैँ की भ्रमर हैत निराश ?

मधु-महोत्सव ओकर चलतई एहिना सदिकाल !

कहू की करथीन क्यौ भूपाल वा नभपाल

अहाँ ओम्हर

हम एम्हर छी

बीच मे व्यवधान

राजमहलक अति विकट प्राकार

सुरक्षित अन्तःपुरक संसार

किन्तु हम उठबैत छी

कोखन कतहुँ जँ

वेदना-विह्वल अपन ई आँखि

अहीँटाकें पाबि सजनि ठाढ़ि चारू दिस

विस्मय विमोहित कंठसँ बहराय जाइछ 'ईस' !

खिन्न भ' अलसाई जनु धनि

वारि जनु दिय अन्न किँवा पानि

व्यर्थ अपनहि उपर कौखन करि जनु अभिरोष

विधि विडम्बित बात ई, एहिमे ककर की दोष ?

नहि कठिन खेपनाइ कहुना चारि वा छौ मास

देवि, सपनहुँमे करि जनु हमर अनविश्वास

अहिँक मधुमय भावनासँ पुष्ट भय

प्रतिभा हमर

रचना करत से काव्य

जाहिसँ होएताह प्रसन्न नरेश

पुनि हमरो दुहुक मिलनाइ होएत -

सखि, सहज संभाव्य ।


अहाँकें कवि पठवितथि संवाद

पाबि आश्वासन अहाँ तत्काल अनशन छाड़ि

होइतहुँ कथंचित् प्रकृतिस्थ !

मनोरंजन हेतु -

हंसक मिथुन अंकित क' देखबितए

कोनो नौड़ी,

कोनो नौड़ी आबि गाबिकँ सुनबैत

ओही प्रियकविक निरुपम पदावलि

जाहिसँ होइत अहाँकेर

कान दुनु निरतिशय परितृप्त !

चित्त होइत तृप्त !

घृणा होइतए महाराजक उपर

धिक धिक !

स्वयं अपने

एकसँ बढ़ि एक एहन

निरुपम गुणसुन्दरी शत-शत किशोरीकें

विविध छल-छंदसँ

किंवा प्रतापक प्रबलतासँ

पकड़ि कए मंगवाय

अन्न-जल भूषन-वसन श्रींगार सामग्रीक ढेर लगाय

सुरक्षित अन्तःपुरक एही अरगड़ामे

बनौने छथि कैकटा रनिवास

बंदी शिविर सन डेरासभक क्रम-पात

एककें दोसराक सङ नहि रहइ जाहिसँ मेल

चक्रचालि चलैत छथि ताहि लेल

कखन करथिन ककर आदर वा ककर सम्मान -

घटौथिन ककए कखन दिनमान -

अही चिंतामे सदए लागल रहए हमरासभक जीजान

महाराजक चरण सम्वाहन करयमे

सफल होइछ

एक मासक भितर जे दुइ राति

पुण्यभागा सुहासिनि अभिशप्त से देवांगना

नहि थीक स्त्रिगणक जाति !

अभागलि कै गोट होएत एहन जकरा

छूबि छाबि कनेक

देने छथिन पुनि अनठाय

मने ओसभ गाछसँ तोड़लाक उतर

कने दकरल लतामक थुरड़ी जकाँ हो

एम्हर-ओम्हर पड़ल पांडुर

कोनो अगिमुत्तुक निर्मम निठुरताक प्रतीक !

सुनई छी, राजा थिका नारायणक अवतार

करवाक चाही हुनक जय-जयकार

किन्तु भगवान सेहो

क्षीरसागर मध्य

एहिना आड्बाल रचि विचरैत छथि ?

इच्छानुसार करैत छथि अभिसार -

आई ककरो

काल्हि ककरो

इन्दिराकें बाध्य भ की एहिना

अनका बनाव' पड़इ छनि हृदयेश ?

...तुमैत एहिना तूर

जाइत होएब अहाँ बहुतो दूर

भावनाक अनन्त पथ दिस

एकसरि चुपचाप...

तुमैत अहिना तूर !

विद्यापतिक कविताक हे चिरउत्स, हे चिरनिर्झरी !

लखिमा, अहाँ छलि हैब अद्भुत सुंदरी !



12. प्रेयसी - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

ठाढ़ी भेली आबि तों तैखन कहाँसँ

हे हमर हीरा, हमर मोती, हमर हे सोन !

चिन्तनाक अथाह जलमे लगौलक डुबकी

- जखन ई मोन !

उठाओल चिरकाल सँ निहुँड़ल अपन ई माथ

कान्हपर जैखन देलह तों हाथ !

हे हृदय ! हे प्राण !


तों ने रहितह संगमे

तँ क' ने सकितहुँ हिमगिरिक अभियान !

रोहिणिया आमक सुपक्क गोपी जकाँ तों

करै छह सदिकाल गमगम सजनि हमरा हेतु

सकै छथि क की हमर ओ राहु आ, की केतु

जाबत तोंहि केंद्रमे छह राति-दिन साकांक्ष ?

चिर वियोगक आगिमे

तोरा जखन हम ठेलि बनलहुँ

परिब्राजक एसगरे ओहि बेर सखी चुपचाप

कते सहने रह तों परिताप ?

बहुत दिन पर ज्ञान एतबा भेल जे हम

केहेन निष्ठुर केहेन निर्मम, केहेन पाषाण !

हे हृदय ! हे प्राण !

अपन इच्छापर तोहर आशाक कैलियहु होम

तों बनलि रहली सदै सखि मोम !

जखन तोरा लग एलहुँ फेर,

क्षमा कैलह हमर सब अपराध

कनियो ने लगौैलह देर !

बाजि उठली सुमुखि तों बिहँसैंत -

की करबैक लै एहिना एलैऐ ह्वैत !

एक आँखि कनैत अछि जग एक आँखि हँसैत !

‌कोनो कारणसँ कदाचित रहै अछि जँ स्त्री-पुरुष दुइ ठाम

बढ़ल जाइत छइ सिनेह, ने ह्वैत छैक विराम !

ह्वैत एलैऐ सदै संयोग आ, कि वियोग

हमहूँ लेलहूँ भोगि, ता' भोगबाक छल जे भोग !

एकसँ दू भेलहुँ प्रियतम,

आब मिली-जुलि क' सकब

हमरा लोकनि घरबाहरक कल्याण

आउ, स्वागत

हे हृदय ! हे प्राण !


जै दियौ गअ

अहाँ की करबैक लै

एहिना एलैऐ ह्वैत ...

बाजि उठली सुमुखि तौं बिहुँसैत !


आइयो तँ छी समुद्रक कातमे हम ठाढ़

(हम एम्हर छी तों ओम्हर छ बीचमे व्यवधान -

एक डेढ़ हजार कोसक !

की करौ स्थलयान वा जलयान ?

कते व्यक्ति बजैत छथि जे

एही युद्धक बाद खूब हेतैक सस्ता विमान !)

हे हृदय, हे प्राण !


13. गोठ बिछनी - वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'

बीछि रहल छैं बंगोइठा तों

घूमि घामि कएँ बाध-बोनमे

पथिआ नेने भेल फिरई छैं

तिनू खूट, चारिओ कोनमे

मैल पुरान पचहथ्थी नूआ

सेहो फाटल चेफड़ी लागल

देहक रङ जमुनिआ, तइपर

मुँह माइक गोटीसँ दागल


बगड़ा जेना लगाबाए खोंता

तेहने रुच्छ केस छउ तोहर

दू छर हारी मात्र गराँमे

केहने विचित्र भेस छउ तोहर


माघक ठार, रौद बैसाखक

तोरा लेखे बड़नी' धन सन

दीन बालिके अजगुत लागए

केहेन कठिन छउ तोहर जीवन


कने ठाढ़ी हो, सुन कहने जो

नाम की थिकउ, कतए रहइ छैं

बीतभरिक भए कोन बेगतें

एते कष्ट आ दुक्ख सहई छैं

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