हे पाहुन मिथिले मे रहियौ, दोसर बात तँ कहब नै,
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
सब दिन भोरे उबटन मलि कऽ, कमला जल सं नहायब
एके मास में श्याम देह के, हम सब गोर बनायब
झूठ बात नै कही अहाँ के, मौका तऽ अहाँ दियौ ने
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
सब दिन रुचिगर तरुआ भुजिया, स्वर्ण थार में परसब
भूक स्वाद बढ़ि जायत सुनि-सुनि, गाइर साइर के रबरब
बेर बेर हम करब खुशामद, थोरबो आर तऽ लियौ ने
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
कमल कोशी बागमती, गण्डक में मन सं उमकब
पावस में बारहमासा सुनायब, अपने झूला झुलायब
पवन देव सं करब नेहोरा, नहुँए-नहुँए बहु ने
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
बहिन हमर जनक किशोरी, करती अवश्य पुछारी जे
जखने अपने अवध नगरिया, केर करबै तैयारी जे
चरण धरब नहि छोड़ब कथमपि, हे राघव अहाँ बिसरब नै
जेहन सुख ससुरारी में भेटत, तेहन सुख तऽ कत्तौ नै
अपने सं मिथिलावासी के युग-युग सं अछि नाता
ई सौभाग्य हमर सब के लिखने छथि सदय विधाता
अपने प्रखर 'प्रदीप' प्रभु हमरा अन्हारो तऽ करियौ ने
रचनाकार: मैथिली पुत्र प्रदीप (प्रभुनारायण झा)
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