शनिवार, 26 दिसंबर 2015

Vidyapati Uagana Story | विद्यापति उगना के कहानी, विद्यापति के शिव प्रेम और उगना के लोककथा

Vidyapati And God Shiva Story in Maithili

मिथिला धरोहर : मिथिलाक लोकमानस मे इ बात सगरो विख्यात अछि जे विद्यापति जी एहन शिवभक्त नय इतिहास मे भेल आ नय भविष्य मे हेताह। लोकमान्यता'क अनुसार महाकवि के रचना धर्मिता आ अपनेक प्रति भक्ति के असीम स्नेह के देखी भगवान शंकर द्रवित भऽ गेलाह। हुनका एना लगलनि जे कि अपन एहि आश्चर्यजनक भक्त आ कवि विद्यापति के बिना ओ रैह नय सकै छथि। फेर की छल। एक दिन भगवान आसुतोष शिव जी अपन रुप बदैल लेलाह और गाँमक एकटा गंवार आ अनपढ़क रुप धारण क महाकवि के सोंझा उपस्थित भऽ गेलाह। ओहि अनपढ़ ग्रामीण के देखि के महाकवि जी पूछला "तोहर नाम की छिऔ? तु हमरा ल'ग किआ एले हन।" एहि पर ओ जवाब देलखिन, "हमर नाम उगना छिं। हम सूदूर गाँमक रहै वला एकटा गरीब, बेरोजगार आ अशिक्षित युवक छिं। काज तकवा लेल अहाँ ल'ग एलौ हन।

एहि पर महाकवि जी जवाब देलखिन,"हम तऽ एकटा साधारण कवि छिं। हमरा ल'ग कुनो तरह'क रोजगार तोरा लेल नय छौउ।" फेर उगना बाजल, "हे कवि, अहाँ हमरा अपना ल'ग चाकर बना के किया नय राइख लय छिं?"

महाकवि कहय लगला,"भई, हम ठहरलौ सामान्य आदमी। नय त हमरा सेवक के जरुरत ऐछ, और नय हम आर्थिक रुप सं एतेक सबल छिं जे सेवक के लालन-पालन कऽ सकब।" एहिलेल तु एतय सं चली जो।" मुदा, उगना जेबाक लेल तैयार नय छल। महाकवि के कथ्य के समाप्त होइते चंचल भाव सं भयमुक्त भ एकाएक बाईज उठला:

"ठाकुर जी, हमरा अहाँ सं किछो नय चाही। खाली दु वक्त'क रुखल-सूखल भोजन खेबा'क लेल द देब।"

महाकवि चुप छलाह मुदा घर'क भीतर बैसल हुनकर पत्नी सुशीला वार्तालाप के ध्यानपूर्वक सुनि रहल छलि। जेखन उगना के इ कहैत सुनलि जे उगना मात्र भोजन ल'के महाकवि के चाकरी करवा के इच्छुक अछि तऽ एकाएक बाहर निकललि। महाकवि के मौन के भंग करैत बजली:


"अहूँ ने कुनो बात पर अनेरो ऐर जाइत छिं। बेचारा अपना के अनाथ कही रहल अछि। अहाँ एकरा राइख लिअ ने। भोजनेटा त खैत बेचारा। फेर अतेक बड़का घर मे बाहर-भीतर'क लेल एकटा भरोसा वला आदमी के बेगरता त ऐछे ने। अहाँ कखनो-काल बाहर अकेले जाइत छिं, ओहि काल हमरा खाली अहाँके चिन्ता लागल रहय अछि। इ देखवा मे सहज आ ईमानदार लागय अछि। हम त अहाँ सँ यैह कहब जे अहाँ एकरा राईख लिअ। हमरा सब के संग उगना परिवारक सदस्य जंका रहि लेत।"

महाकवि अपन पत्नी सुशीला के गप्प पर गंभीरता सँ मौन भ के सोचय लगला। ओमहर उगना मोने-मोन प्रसन्न भ रहल छलैथ। किछ काल सोचबाक उपरांत विद्यापति उगना के सम्बोधित करैत बजलनि:

"देख उगना, हम तोरा अपना एतय रैइख रहल छीऔ। तु थोड़-बहुत हमर सेवा क देल करीहे। तु एतय निडर भ के हमर परिवारक सदस्यक भांति र'ह। कखनो भी अपना-आपके चाकर नय बुजिहे। हँ हमर धर्मपत्नी सुशीला तोरा जे काज दउ ओय के उचित समय पर करीहे। 


अतेक कही के महाकवि अपन कथ्य के विराम देलखिन। उगना के प्रसन्नता'क वर्णन तऽ शब्द मे कैल नय जा सकय अछि। प्रसन्न मन सँ ओ महाकवि आ सुशीला दीस कृतज्ञ नैन सँ देखैत महाकवि के आज्ञा'क पालन करवाक लेल बगलक पोखैर (तालाब) मे स्नान-ध्यान'क लेल चैल देलक। हिनक आँखि मानु बेर-बेर इ कहव  चाहैत जे महाकवि विद्यापति जी अहाँ त हमरा अपन घर मे स्थान द कृत-कृत क देलो।"

आब उगना महाकवि के एतय एकटा विनम्र और स्वामीभक्त चाकरक रुप मे र'हय लगलनि। प्रयास इ करय छलखिन जे किनको हुनकर काज मे नुक्स तकबाक अवसर नय भेटय। महाकवि विद्यापति ठाकुर और हुनक पत्नी सुशीला दुनु गोटे उगना के काज, ईमानदारी और स्वामीभक्ति सँ बहुत प्रसन्न छलाह। विद्यापति के त उगना पर अतेक विश्वास भ गेल छलैन जे ओ जतय भी जाइत छलाह अपना संगे उगना के सेहो ल जाइत छलाह।


एक बेराक बात अछि। एक दिन महाकवि अपन गाँम विसपी सँ राजदरबार जा रहल छलैथ। सेवक उगना सेहो संग छल। जेठक महीना छला। गरमी अपन चरमोत्कर्ष पर छला। लोग सब परेशान भ रहल छलाह। दुनु गोटे भरल दुपहरिया मे पैदल चलैत जा रहल छलैथ। आगु-आगु महाकवि विद्यापति और पाछु-पाछु उगना। दुनु गोटे चलैत-चलैत एकटा एहन स्थना मे पहुँचलनि जे पूरा विरान लागि रहल छल। चारु दिस नय गाछ-वृक्ष, नय पैनक स्रोत, अगवे खेते-खेत। ओहो फसलविहिन और बड़का-बड़का माटीक ढ़ेपा सँ उबर-खाबर खेत। एकाएक महाकवि के प्यास लगलनि, मुदा पैन नय छला। देख ने पैनक कुनो स्रोत-इंनार, पोखरी, नदी आदि त ऐछे नय। एकटा आमक गाछक निचा रुकी महाकवि उगना के सम्बोधित करैत कहलनि:

"उगना, प्रचण्ड गर्मी छय।"

"हँ ठाकुरजी।" उगना हुनकर गप्प के समर्थन केलनि। महाकवि फेर बजलनि:

"उगना, हम पैन पिबय चाहय छिं। इ लोटा ले और कतउ सँ पैनक व्यवस्था क'र।"

उगना लाचार भाव सँ ऐमहर-ओमहर देखैत बजलनि- "ठाकुरजी, मुदा जल'क स्रोत केतउ नय अछि। अंहि कहु हम की करू। चलु किछ और आगु बैढ़ के कुनो गाँमक आस-पास चलय छिं। ओतय पैन भेट सकैत अछि।"

मुदा विद्यापति केर कण्ठ प्यास सँ सुखय लगलनि। बैज पड़ला, "उगना, केतउ सँ पैनक  व्यवस्था क ले, अन्यथा हम प्यास सँ मैर जेबो।

एतेक कहीके कवि बेहोश भ के ओतय सुइत गेला। उगना त मामूली चाकर छलैथ नय। ओ त साक्षात् देवाधिदेव महादेव छलैथ। कुनो उपाय नय भेटला पर किछ दूर गेलैथ और अपन जटा सँ एक लोटा गंगा जल ल'के महाकवि के लग आबि गेला। फेर विद्यापति के उठाबैत बजलनि-

"ठाकुरजी, ठाकुरजी, उठु अहाँ के लेल कुनो तरहे हम एक लोटा जल के प्रबन्ध केलो अछि। उठु जल पीब अपन प्यास बुझाउ।"

उगना के एहि कथ्य सँ जेना महाकवि के जीवनदान भेट गेलनि। ओ फुर्तीक संग उठला और लोटा के जल के एके साँस मे पीब गेला। गटागट-गटागट। जल पीबते हुनका अनुभव भेलनि जे इ जल सामान्य नय भ के विशिष्ट अछि। जल-जल नय भ के गंगाजल छला। फेर की छल, महाकवि जी उगना सँ पूछलनि-

"उगना, सच-सच बता तु इ जल कतय सँ अनले। उगना, तु मामूली चाकर नय छे। इ जल साधारण जल नय छिं बल्कि गंगाजल अछि।"

उगना बात के टालैत बाजल-

"नय ठाकुरजी, हम त थोड़े दूर जा क एकटा इनार (कुँए) सँ अहाँके लेल इ जल बड़ मुश्किल सँ अनलो हं। अहाँ अनेरो एकरा गंगाजल कहि रहल छिं। हम भला एहि विरान जगह मे गंगाजल कतय सँ ल आनव। अहाँ शंका नय करू। जल्दी उठु आब हम सब आगु के यात्रा प्रारंभ करै छिं।"

ओना उगना कनि घबरायल लागि रहा छल। मुदा महाकवि विद्यापति छलैथ गजब के पारखी। ओ फेर सँ अपना प्रश्न दोहरेलनि:

"उगना, हमरा पूरा विश्वास अछि, जे तु मामूली चाकर नय छे। तु हमरा सँ किछ रहस्य छिपाबय  चाहय छे। सच-सच बता नय त हम एतय सँ नय उठबउ। तु के छे, और इ जल जे तु हमरा पिबय लेल अनले ओकर रहस्य की छिं। उगना, तु अपन रहस्य हमरा कही दे।"

उगना फेर बाजल- 

"ठाकुर जी, अहाँ अनेरो हमरा एहन जाहिल चाकर मे रहस्य देखबाक प्रयास क रहल छिं।अहाँ के प्यास बुझेबाक लेल हम एकटा ईनार सँ जल ल के अहाँ के देलो अछि। एहिके अलावा हम किछो नय जानय छिं। अगर जल लौनाय रहस्य छिं त हमर रहस्य यैह छिं।"

विद्यापति भला उगना के झांसा मे नय आबय वला छलखिन फेर बजलैथ:

"उगना, आब देर नय करय। चुपचाप सच के बखान क दे। हम जेहि जलक पान अपन लोटा सँ केलो य ओ गंगाजलक अतिरिक्त किछु नय भ सकय छय। आब या त तु सच-सच कही दे अन्यथा हम एतय सँ आगु नय बढ़बौ।"

आब उगना असंसजस मे आबि गेल। विद्यापति फेर बाईज उठला-

"उगना कहीं तु शिव त नय छे।" एहि पर उगना मुस्कुरा देलक। विद्यापति के आब पूर्ण विश्वास भ गेलनि जे उगना कीओ और नय बल्कि भगवान महादेव छथि, और अपन जटा सँ गंगाजल निकैल हुनका पीबय के लेल देलक अछि। फेर की छल ओ उगना के पैर पर गिर क त्राहिमाम् प्रभो-त्राहिमाम् कहय लगला।

आब उगना शिव के असली रुप मे उपस्थित भ के कवि के धन्य क देलखिन। महाकवि जी विस्फोटित नेत्र सँ महादेव के दर्शन केलनि। फेर भगवान महादेव महाकवि के ईंगित करैत कहनाय प्रारंभ केलथि:

"देखु विद्यापति, हम अहाँ के भक्ति और कवित्त शैली सँ एतेक प्रभावित छिं जे हमेशा अहाँके संग रहय चाहय छिं। एहि लेल हम उगना नामक जटिल चाकरक वेश बदैल अहाँ के लग एलो। हम एखनो अहिं लग रहय चाहय छिं, मुदा एकटा शर्त अछि। जाहि दिन अहाँ किनको सँ इ कही देब जे हम उगना नय भ के महादेव छिं, हम ओहि छन अन्तध्र्यान भ जायब। एकरा अहाँ निक जंका गांठ बैह्न लिअ।"

महादेव के दर्शन पाबि के महाकवि विद्यापति गदगद भ गेलैथ। हुनका लगलनि जे मानु हुनकर जीवन धन्य भ गेलनि। जे काज लोग दस जन्म मे नय क पाबैत, ओहिके कवि  सहजता सँ प्राप्त क लेलैथ। महाकवि जी भगवान शंकर सँ कहलनि- हे नाथ, हमरा संसार के कुनो भी वस्तु के लोभ नय अछि। अहीं हमर इष्ट देव, आराध्य देव, आदर्श-देव और पूज्यदेव छिं। अहाँ के सानिध्य भेट गेल, आब की चाहि। मुदा, प्रभो! अहाँके हमरा एहन तुच्छ भक्त के एतय चाकरक रुप मे रहनय की ठीक अछि? अहाँ हमर मित्रक रुप मे या कुनो अन्य वेश मे नय रही सकय छिं?"

भगवान शंकर जी एहि पर जवाब देलखिन:

"नय पुत्र! हम केवल उगना बनी के अहाँ संग रहब। अहाँ सँ केवल एकटा निवेदन ऐछ जे अहाँ एहि रहस्य के अपने तक रखब। और कुनो भी परिस्थिति मे अपन पत्नी सुशीला सँ एहि रहस्य के उजागर नय करब।"

एहि पर महाकवि गर्दन हिला क अपन स्वीकृति द देलखिन। भगवान महादेव पुन: उगना के वेश मे आबि गेला। ओना एहि घटना के बाद महाकवि प्रयास करय छला जे उगना सँ जतेक कम काज करवैल जा सकै ओतेक निक। मुदा हुनक पत्नी त एहि सच सँ बिल्कुल अन्जान छलि।

एक दिन सुशीला उगना के कुनो काज करवाक लेल कहलनि। उगना काज के निक जंका बुईझ नय पेलक। करवाक किछ आ क देलक किछ और। एहि पर सुशीला तामस सँ लाल भ गेलि। अपन तामस नय बर्दाश्त क पेलि। आवेग मे आबि के जमीन पर पड़ल बारहैन उठा के तरातर उगना पर बेतहाशा प्रहार करय लगलि। उगना बारहैन खाइत रहल। एहि बीच महाकवि ओतय पहुँच गेला। ओ सुशीला के मना केलखिन। मुदा सुशीला मारनाय बन्द नय केलि। आब कवि के सब्रक बांध टुइत गेलनि। एकाएक भावातिरेक मे चिकरैत बजला-

अनबुझ स्त्री! अहाँ के बुझल य अहाँ की क रहल छिं ? उगना सामान्य चाकर नय अपितु भगवान शंकर छथि। अहाँ भगवान शंकर के झाड़ू माईर रहल छिं।"

कवि के एतेक कहिते उगना अन्तध्र्यान भ गेलनि। आब विद्यापति के अपन गलती के  अहसास भेलनि। मुदा ता धरि उगना विलीन भ  चुकल छलैथ। कवि घोर पश्चाताप मे खोय गेला। खेनाय-पीनाय सब छोईड़ के उगना, उगना, उगना रट लगाबय लगला। बताहक भाति जगह-जगह उगना के ता'कय लगला। ओहि समयो महाकवि एकटा अविस्मरनीय गीतक उगना के लेल बनेलनि। गीत नीचा देल जा रहल अछि:

उगना रे मोर कतय गेलाह।
कतए गेलाह शिब किदहुँ भेलाह।।
भांग नहिं बटुआ रुसि बैसलाह।
जो हरि आनि देल विहँसि उठलाह।।
जे मोरा कहता उगना उदेस।
नन्दन वन में झटल महेस।
गौरि मोन हरखित मेटल कलेस।।
विद्यापति भन उगनासे काज।
नहि हितकर मोरा त्रिभुवन राज।।

महाकवि विद्यापति अधीर भ उठलाह। हुनक अधिरता पद के रुप ग्रहण करय लगलनि- अरे, हमर उगना। तु कहाँ चलि गेले? हमर शिव, तु कहाँ हेरा गेले! तोरा कि भ गेलो? आह! हम तोरा झोली मे भागं नय राखय छलु तु केना रूईस जाईत छले! आ जखने हम खोइज-खाइज के लाबय छलु, तु प्रसन भ जाईत छले। आय तु एकाएक कहाँ चलि गेले? जे किओ हमरा हमर उगना के सम्बन्ध मे जानकारी देत, हम वास्तव मे ओकरा उपहार स्वरुप कंगना देब। अरे! भगवान महेश त भेंट गेला! भाई, ओहि नन्दन कानन मे। अरे देखु, गौरी सेहो प्रसन्न भ उठलि। आब हमरो क्लेश खत्म भ गेल। हमरा त मात्र उगना सँ काज य। तिनु-लोकक इ राज-पाट हमरा लेल हितकारी नय अछि।

1 टिप्पणी:

  1. कार्तिक अस्नान और गोसाई के नाम पर भी एक आर्टिकल पोस्ट कीजिए। स्तोत्र सहित।

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