हुनका निहारैत हमर नजरि भीत पर लिखल कोबर पर चल गेल । हम अपना हिसाबे ओकरा बुझबाक कोशिश करऽ लगलौं । किछु भंग पर नै चढि रहल छल ।
तखने भिडकाओल केबाडक बाहर सं खखसैत बिधकरी पहुंचली । हम सम्हरैत कहलियनि-'अबियौ भाभी जी, सब ठीक छै !'
-'से हमरा बिना परमीशन के संभवो नै अछि ! कम-सं-कम दू दिन आर काबू राखू ! चतुर्थीक राति फ्री कऽ देब !' आ ठिठिआइत हमरा आ श्यामाक बीच 'हाइफन' बनि बैसि रहली ।
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● महुअक काल के गीत - मैथिली लोकगीत
हम पुछलियनि-'अंय ये भाभी जी, ई देबाल पर अर-दर कथीक चित्र सब लिखल छै ?'
बिधकरी इत्मीनान सं कहलनि-'ओऽऽ ! तऽ आउ बुझबै छी !' आ चोट्टे उठि कऽ ठाढ भऽ गेली-'ई पुरइन आ कमल छै, नारी-पुरुषक प्रतीक ! सूर्य आ चन्द्रमा ओकरा मे शक्ति देनिहार । काछु छै प्रेम-मिलनक प्रतीक । सूगा दूनूक माध्यम । आ ई छै नचैत मयूर, माने आमोद-प्रमोद ! आ ई देखियौ, माछ ! परस्पर आकर्षणक प्रतीक !...'
-'आ ई बांस ?' हम ओहिना रुचि देखबैत पूछि देलियनि ।
-'लबडा !' बिधकरी जेना लजाइत बजली ।
-'मतलब ?'
-'मतलब, ई छिऐ वंशवृद्धिक प्रतीक ! की ये श्यामादाइ, अहां तऽ ई सब जनै छिऐ ने ?'
ओ एहि प्रश्न पर जेना आर कठुआ गेली ! आ तखने हमरा ई दू दिन पहाड बुझाय लागल !
...से अपन अतीत मे बौआइत हम दुनू प्राणी भभाकऽ हंसि पडलौं-'आब तऽ ई सब खिस्सा-पिहानी भऽ गेलै !'
साभार : बिभूति आनन्द
बिधकरी इत्मीनान सं कहलनि-'ओऽऽ ! तऽ आउ बुझबै छी !' आ चोट्टे उठि कऽ ठाढ भऽ गेली-'ई पुरइन आ कमल छै, नारी-पुरुषक प्रतीक ! सूर्य आ चन्द्रमा ओकरा मे शक्ति देनिहार । काछु छै प्रेम-मिलनक प्रतीक । सूगा दूनूक माध्यम । आ ई छै नचैत मयूर, माने आमोद-प्रमोद ! आ ई देखियौ, माछ ! परस्पर आकर्षणक प्रतीक !...'
-'आ ई बांस ?' हम ओहिना रुचि देखबैत पूछि देलियनि ।
-'लबडा !' बिधकरी जेना लजाइत बजली ।
-'मतलब ?'
-'मतलब, ई छिऐ वंशवृद्धिक प्रतीक ! की ये श्यामादाइ, अहां तऽ ई सब जनै छिऐ ने ?'
ओ एहि प्रश्न पर जेना आर कठुआ गेली ! आ तखने हमरा ई दू दिन पहाड बुझाय लागल !
...से अपन अतीत मे बौआइत हम दुनू प्राणी भभाकऽ हंसि पडलौं-'आब तऽ ई सब खिस्सा-पिहानी भऽ गेलै !'
साभार : बिभूति आनन्द
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