रचनाकार - विद्यापति
बारहमासा गीत
चैत मास गृह अयोध्या त्यागल हानि से भीपति परी
अलख निरञ्जन पार उतरि गेल तपसी के वेश धरी
हो विकल रघुलाथ भये…
कहाँ विलमस हनुमान विकल रघुलाथ भये।
धूप-दीप बिनु मन्दिर सुन्न भैल मास बैसाख चढ़ी
सीमा बीना मन्दिर भेल सुना बन बीच कुहकि रही
कहाँ विलमल हनुमान…
जेठ वान लगे लछमन के धरनी से मरक्षि खसी
वैद्य सुखेन बताबय श्रीजमणि तब लछमन उबरी
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
राम सुमरि बीड़ापान उठायल धवलगिरि चली
मास अषाढ़ घटा-घन घहरे राम सुमरिक चली
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
साबन सर्व सुहावन रघुबन सजमनि लेख न पटी
दामिनि दमके तरस दिखाबे जब मोन सब घबरी
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
भादब परबत भोर उखारल बुन्दक मार परी
निसि अन्धयारी पंथ नहिं सूझल राम सुमरि क चली
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
आसिन मास देखे रघुबर जी देखि लथुमन हहरी
सीता सोचती सोचे रघुबरजी लछुमन सुधि बिसरी
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
अगहन रघुबर आशिष मांगथि हर्षित सब भई
ओहि अबसर अञ्जनिसुत अचला सब मोन हर्षित भई
हो विकल रघुनाथ भये…
कहाँ विलमल हनुमान…
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